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हिमालय का क्रोध

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  मैं धारी के रूप सी कन्या थी ,  खिलखिलाती रही, महकती रही, जो मैं जननी हुई, अपनी कंदराओं और नदियों से पालन किया, मैं देवी हुई, रक्षक बनी, पहाड़ बन अडिग अटल खड़ी रही चाह नहीं की, कि मांगू कुछ तुझसे तू क्या ही दे सकता है? प्रेम और आदर भी न दे सका जो! रौंद दिया , काट दिया, छिन्न छिन्न कर दिया मुझे, ओ मनु तूने ! मैं तार तार हो गयी, पर फिर भी देती रही तुझे, तू तब भी न रुका ! मेरे बहते लहू को देख न सका, तो आज सुन और देख,  मेरा यह चौथा रूप रूप जो विकराल है, रौद्र है, काली है देख मेरा उफान ! बच सकता है तो बच देख मेरा कम्पन ! खड़ा रह सकता है तो खड़ा रह भद्र से महा काली बनी हूँ आज ओ मनु! तू देख मुझे आज देख सकता है तो देख

मेरे झरोखे का पहाड़

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 सुबह आंख खुली, तो तुम्हे टकटकी बांधे, मेरी ओर देखते पाया  तुम हर रोज़ मेरे झरोखे के सामने खड़े रहते हो कभी आसमां को चूमते मुझे चिढ़ाते हो ,की तुम इतनी दूर क्यों खड़ी हो कभी बादलों में घिरे मुझसे कहते हो की आ जाओ मेरी बाहों में  तुम वहीँ खड़े रहते हो टकटकी बांधे, मेरी ओर देखते रहते हो मानो कहते हो, की मैं हूँ , तू बढ़ तो सही, मेरी ओर एक कदम, उठा तो सही मैं भरी दोपहरी में भी तुम्हे देखने, उस तपते झरोखे पर नंगे पाऊँ चली आती हूँ और तुम इस नीले आसमां तले कुछ पास,  कुछ और ऊंचे नज़र आते हो  शाम ढलते हुए सतरंगी हो जाते हो  तुम मुझे उस समय स्वप्निल नज़र आते हो मैं बैठी रहती हूँ तुम्हारे इंतज़ार में , कि  शायद आज तुम मुझे लेने आ जाओ  कि  रात होने को है , मुझे इस अंधकारमयी दुनिया से बचाने  तुम चले आओ और फिर रात को टिमटिमाते सितारों तले तुम विकराल हो जाते हो कहते हो की मैं हूँ , तुम सो जाओ तुम वहीँ खड़े रहते हो टकटकी बांधे मेरी ओर देखते रहते हो

बहुत दूर कितना दूर होता है

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  वह लन्दन की गर्मी की एक शाम थी।  मैं दफ्तर से निकल रीजेन्ट्स पार्क की तरफ चल रही थी ।  मैं अक्सर शाम को  वहां जाती थी। अपने में खोयी सुर्ख लाल ढलते सूरज को निहारती चली जा रही थी।   लोग काम से घर जा रहे थे और कुछ घर से वाक के लिए निकले थे।  गर्मियों में अक्सर हिंदुस्तानी लोग यूरोप घूमने जाते हैं और लंदन तो वैसे ही आधा हिंदुस्तानी ही लगता है।  तो भारतीय मूल के लोग दिखना हैरान नहीं करता।  मैं पार्क में पहुंची ही थी की एक पेड़ के नीचे किसी को बैठे देखा, वह कुछ पढ़ रहा था।   यह पेड़ तो मेरा है !  मैं यहां हर शाम स्केचिंग करने बैठती हूँ,  आज यह कौन है ? और यह चेहरा इतना देखा भाला क्यों लग रहा है ?  मैं यह सोच ही रही थी की वो उठ के जाने लगा।  मुझे देख वो मुस्कुराया और आगे चलने लगा ।  मैंने पूछा, " बहुत दूर कितना दूर होता है ? "

Alwar-Sariska-Bhangarh

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सुबह के सात बजे हैं, पास रखी मेज़ पर फ़ोन बजता है, अलार्म नहीं है, दीदी का मैसेज है.  एक यूट्यूब लिंक.  नींद में अलसायी आंखें अचानक खुल गयीं.  दीदी को फ़ोन मिलाया, “कहाँ चलना है? जहाँ भी, बस चलो.  “सरिस्का, यहां से चार-साढ़े चार घंटे का सड़क का रास्ता  है”, दूसरी तरफ से जवाब आया.  “तो ठीक है बुकिंग करा ले.” बस फिर क्या था, चलिए मेरे साथ अलवर और सरिस्का कि सैर पर…  थोड़ा क्रेडिट IRCTC को भी दे देते हैं! अगली सुबह दिल्ली कैंट से करीब 9:15 पर गरीबरथ ट्रेन में टिकट बुक करा ली और 11:30 पहुँच गए अलवर शहर.  गुल्लू सोनी जी की टैक्सी सर्विस से दो दिन के लिए एक टैक्सी बुक करा ली और स्टेशन पर हमें मिले नवल जी हमारे गाइड और ड्राइवर. अरे ! यह बात बताना तो भूल ही गयी,  यह एक 5 खूबसूरत महिलाओं का ट्रिप था, जिसमें 60 से ऊपर भी और 30 साल से कम वाली भी.  दिल्ली के करीब बसा राजस्थान का शहर, अलवर.  अलवर, राजस्थान कि रेतीली धूल में सना, बड़े शहरों के किनारे का अतरंगी ढंग लिए अलसाया हुआ छोटा सा शहर.  स्टेशन से निकले और पहुँच गए सुबह के नाश्ते की कचौ...

Khushiyon ki potli

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  शाम हो चली थी, ढलते सूरज की लालिमा आसमान पर छाई, संतरी- बैंगनी रंग बिखेरे थी।  कहीं दूर बादल और ठंडी हवा अटखेलियां खेल रहे थे।  मैं  बालकनी में खड़ी यह सोच रही रही थी की इस दिन की जितनी सुंदर शाम है, इस महामारी का अंत कब आयेगा। चारों ओर त्राहि त्राहि है। बीमारी का प्रकोप, मौत का तांडव मचा हुआ है।  तभी चौकीदार एक ठेले को दौड़ाता हुआ दिखा। ठेला क्या था खुशियों की पोटली थी।  तीन नन्हे बच्चे फटेहाल मेले कुचेले कपड़ों में सब्जी बेचने निकले थे। घर के लिए कुछ पैसे जुटाने निकले थे। उछलते कूदते हंसी ठिठोली करते, सब्जियां लिए ठेला दौड़ाए जा रहे थे। हम क्या सब्जी खरीदेंगे इनसे, अजी जनाब, ये तो हमें मुफ्त में मुस्कुराहट बाटें चले जा रहे थे, अपनी खुशियों की पोटली से। 

An ode to Ghalib

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 इतने दुखी न हो ग़ालिब,  शराब अभी बाक़ी है प्याले में

A woman in this world

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 वह सर्दी की धूप में चटाई बिछाकर आंख मूंदे लेटी थी । तेज धूप चेहरे को सुर्ख किए जा रही थी।  "चेहरा काला पड़ जाएगा नौनी", मां के शब्द कानों में पड़ते और निकल जाते।  वह दुनिया घूम रही थी। अचानक उसकी आंख खुली, नीला सुनेहला आसमान और उसमें घूमती चील। एक नहीं, अनेक। वह आसमान की गहराहाई में खोजने लगी। जहां तक देखा चील ही दिखीं। #shortstory #dreams #beingawoman