Khushiyon ki potli

 शाम हो चली थी, ढलते सूरज की लालिमा आसमान पर छाई, संतरी- बैंगनी रंग बिखेरे थी। 

कहीं दूर बादल और ठंडी हवा अटखेलियां खेल रहे थे। 

मैं बालकनी में खड़ी यह सोच रही रही थी की इस दिन की जितनी सुंदर शाम है, इस महामारी का अंत कब आयेगा। चारों ओर त्राहि त्राहि है। बीमारी का प्रकोप, मौत का तांडव मचा हुआ है।

 तभी चौकीदार एक ठेले को दौड़ाता हुआ दिखा। ठेला क्या था खुशियों की पोटली थी। 

तीन नन्हे बच्चे फटेहाल मेले कुचेले कपड़ों में सब्जी बेचने निकले थे। घर के लिए कुछ पैसे जुटाने निकले थे। उछलते कूदते हंसी ठिठोली करते, सब्जियां लिए ठेला दौड़ाए जा रहे थे।

हम क्या सब्जी खरीदेंगे इनसे, अजी जनाब, ये तो हमें मुफ्त में मुस्कुराहट बाटें चले जा रहे थे, अपनी खुशियों की पोटली से। 




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