हिमालय का क्रोध

 

मैं धारी के रूप सी कन्या थी , 
खिलखिलाती रही, महकती रही,

जो मैं जननी हुई,
अपनी कंदराओं और नदियों से पालन किया,


मैं देवी हुई, रक्षक बनी,
पहाड़ बन अडिग अटल खड़ी रही

चाह नहीं की, कि मांगू कुछ तुझसे
तू क्या ही दे सकता है?

प्रेम और आदर भी न दे सका जो!
रौंद दिया , काट दिया, छिन्न छिन्न कर दिया मुझे,
ओ मनु तूने !

मैं तार तार हो गयी, पर फिर भी देती रही तुझे,
तू तब भी न रुका !
मेरे बहते लहू को देख न सका,
तो आज सुन
और देख, मेरा यह चौथा रूप
रूप जो विकराल है, रौद्र है, काली है
देख मेरा उफान !
बच सकता है तो बच

देख मेरा कम्पन !
खड़ा रह सकता है तो खड़ा रह

भद्र से महा काली बनी हूँ आज

ओ मनु!
तू देख मुझे आज
देख सकता है तो देख

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