मेरे झरोखे का पहाड़
सुबह आंख खुली, तो तुम्हे टकटकी बांधे, मेरी ओर देखते पाया तुम हर रोज़ मेरे झरोखे के सामने खड़े रहते हो कभी आसमां को चूमते मुझे चिढ़ाते हो ,की तुम इतनी दूर क्यों खड़ी हो कभी बादलों में घिरे मुझसे कहते हो की आ जाओ मेरी बाहों में तुम वहीँ खड़े रहते हो टकटकी बांधे, मेरी ओर देखते रहते हो मानो कहते हो, की मैं हूँ , तू बढ़ तो सही, मेरी ओर एक कदम, उठा तो सही मैं भरी दोपहरी में भी तुम्हे देखने, उस तपते झरोखे पर नंगे पाऊँ चली आती हूँ और तुम इस नीले आसमां तले कुछ पास, कुछ और ऊंचे नज़र आते हो शाम ढलते हुए सतरंगी हो जाते हो तुम मुझे उस समय स्वप्निल नज़र आते हो मैं बैठी रहती हूँ तुम्हारे इंतज़ार में , कि शायद आज तुम मुझे लेने आ जाओ कि रात होने को है , मुझे इस अंधकारमयी दुनिया से बचाने तुम चले आओ और फिर रात को टिमटिमाते सितारों तले तुम विकराल हो जाते हो कहते हो की मैं हूँ , तुम सो जाओ तुम वहीँ खड़े रहते हो टकटकी बांधे मेरी ओर देखते रहते हो
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